ट्रैफिक से जाम दिल्ली की सड़क पर नजर आया असली इस्लाम, ये अर्थ होता है मुसलमान होने का..!


दिल्ली के जाम से दो-चार हो चुके लोग बेहतर तरीके से जानते होंगे कि यहां की सड़कों की कोई मंजिल नहीं होती, पर हां इन सड़कों से गुजरते लोग ज़रूर जिन्दगी के कुछ सबक सिखा जाते हैं। हर दिन की तरह वही सड़कें थीं,वहीं एक के बाद एक पड़ती रेड लाइट्स थीं।
अब तो इन रेड लाइट्स पर भीख मांगने वाले भिखारी, गुब्‍बारे बेचने वालों और उन बच्चों से पहचान सी हो गई है, जो मासूम चालाकी से हमेशा मेरे ऑटो में बेनूर और बेखुशबू,धूल से पटे गुलाब रख जाते थे और बत्ती के ग्रीन सिग्नल से चंद मिनट पहले फुर्ती से उठा ले जाते थे, उस दिन मैं ऑफिस से निकली तो लेट हो गई थी। रोज़ा था तो एहतियातन एक पानी की बोतल रोज़ा खोलने के लिए रख ली।
जानती थी, समय पर घर नहीं पहुंच पाऊंगी पर फिर भी बार-बार घड़ी देख रही थी। गर्मी और उमस ने बेचैन कर दिया था। शाम होने के बावजूद ऐसी लू लग रही थी कि सिर घूम रहा था।
मन ही मन कह रही थी कि या खुदा बस किसी तरह जल्द से जल्द घर पहुंचा दे। ना चाहते हुए भी कई बार होठों पर जीभ चली गई पर उस दिन तो ऐसा लग रहा था कि मुंह का सलाइवा (लार) भी जैसे जज़्ब (सूख) हो चुका हो। जाम में फंसते-फसाते जैसे ही घर के करीब पहुंची। मेट्रो की भेंट चढ़े ट्रैफिक की वजह से एक के बाद एक दो बार एक ही रेड लाइट पर फंस गई और यहीं पानी से रोज़ा इफ्तार करना पड़ा।
लेट होने की झुंझलाहट में ऑटो वाले से बहस कर रही थी कि सामने से आ रहे उस जाने-पहचाने चेहरे पर नज़र पड़ी। ये वही बच्ची थी, जो अक्सर मेरे ऑटो में जबरन गुलाब या फिर गुब्‍बारे रख जाती थी, जिन सड़कों को सूरज की तपिश ने गर्म तवे में तब्दील कर दिया था, उसी सड़क पर 7 से 8 साल की ये बच्ची ऐसे चल रही थी, जैसे मदारी का कोई करतब कर रही हो। सड़क पर कभी पंजे रखती, तो कभी एड़ी टिकाती, तो कभी उछल कर एक कदम में ही पूरा रास्ता तय करना चाहती।
मेरी उसकी बिना परिचय की पहचान ही थी कि वो कई ऑटो को छोड़ते हुए मेरे ऑटो के पास आकर ठहरी और बगैर कुछ बोले इशारे से कुछ मांगा। मैं गुस्से में थी इसलिए उसे भी डांट दिया, वो कुछ बोल नहीं रही थी, बस इशारा कर रही थी, और धीरे से बोली ‘’पानी..पानी दे दो’’किसी ने पहली बार ऐसी भीख मांगी थी थोड़ी देर के लिए लगा मैंने ठीक से नहीं सुना पर वो दोबारा फट चुके होठों पर जमी खून के पपड़ी वाले होठों से बोली पानी,
उसके होठों को देखकर जाने कब मेरा हाथ अपने होठों पर चला गया और प्यास से फट चुके होठों की हालात कुछ उस बच्ची के होठों जैसी ही महसूस हुई, इतने में बच्ची ने मेरे दुप्पटे को खींचा और बोली ‘’पानी’’ मेरी नज़र पानी पर गई और देखा बोतल में थोड़ा ही पानी बचा था और पानी भी झूठा था, बच्ची को झूठा पानी देने का मन नहीं हुआ, लेकिन बच्ची का चेहरा देखकर बोतल दे दी।
इधर, बच्ची ने बगैर एक मिनट गंवाए, बोतल में जितना भी पानी था, पी लिया और मेरी तरफ देखकर कर मुस्कुराई और आगे बढ़ गई। बच्ची का चेहरा काफी देर तक आंखों के सामने घूमता रहा। सोच रही थी कि आज मेरा रोज़ा है, तो मुझे प्यास के एहसास ने तड़पा दिया, लेकिन इस मासूम बच्ची की तरह ही दुनिया भर में लाखों बच्चे भूख और प्यास के मारे मजबूरी के ऐसे रोज़े रखने को मजबूर हैं, जिनकी गिनती ना खुदा की राह में है, और ना ही भगवान के दर पर ऐसा नहीं है कि मैं बहुत रईस हूं।
मुफलिसी, गुरबत, फाकाकशी से मैं भी दो चार हो चुकी हूं, लेकिन मेरी जिन्दगी में मई- जून के महीने में पड़ने वाले इस रमज़ान ने दीन के साथ एक सबक भी सिखा दिया कि खुदा की राह में हर साल बगैर कुछ सोचे मुसलमान होने के नाते यूहीं रोज़े रखती आ रही थी।
इन रोजों के पीछे सबाब कम और गुनाहों की माफी का मकसद ज्यादा होता था, पर जून की गर्मी में प्यास से बिलबिलाती उस बच्ची को देखकर रोज़े रखने की उन वजहों ने भी दिमाग में दस्तक दी, जो इंसान को सब्र अमीर और गरीब से हटकर एक सफ (लाइन) में खड़े होकर सिर्फ और सिर्फ इंसानियत के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। रमज़ान में रोज़ों के पीछे बहुत सी वजहें हैं, लेकिन मेरे दिल को जिस वजह ने इस साल छू लिया वो उस बच्ची की प्यास थी।


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दिल्ली के जाम से दो-चार हो चुके लोग बेहतर तरीके से जानते होंगे कि यहां की सड़कों की कोई मंजिल नहीं होती, पर हां इन सड़कों से गुजरते लोग ज़रूर जिन्दगी के कुछ सबक सिखा जाते हैं। हर दिन की तरह वही सड़कें थीं,वहीं एक के बाद एक पड़ती रेड लाइट्स थीं।
अब तो इन रेड लाइट्स पर भीख मांगने वाले भिखारी, गुब्‍बारे बेचने वालों और उन बच्चों से पहचान सी हो गई है, जो मासूम चालाकी से हमेशा मेरे ऑटो में बेनूर और बेखुशबू,धूल से पटे गुलाब रख जाते थे और बत्ती के ग्रीन सिग्नल से चंद मिनट पहले फुर्ती से उठा ले जाते थे, उस दिन मैं ऑफिस से निकली तो लेट हो गई थी। रोज़ा था तो एहतियातन एक पानी की बोतल रोज़ा खोलने के लिए रख ली।
जानती थी, समय पर घर नहीं पहुंच पाऊंगी पर फिर भी बार-बार घड़ी देख रही थी। गर्मी और उमस ने बेचैन कर दिया था। शाम होने के बावजूद ऐसी लू लग रही थी कि सिर घूम रहा था।
मन ही मन कह रही थी कि या खुदा बस किसी तरह जल्द से जल्द घर पहुंचा दे। ना चाहते हुए भी कई बार होठों पर जीभ चली गई पर उस दिन तो ऐसा लग रहा था कि मुंह का सलाइवा (लार) भी जैसे जज़्ब (सूख) हो चुका हो। जाम में फंसते-फसाते जैसे ही घर के करीब पहुंची। मेट्रो की भेंट चढ़े ट्रैफिक की वजह से एक के बाद एक दो बार एक ही रेड लाइट पर फंस गई और यहीं पानी से रोज़ा इफ्तार करना पड़ा।
लेट होने की झुंझलाहट में ऑटो वाले से बहस कर रही थी कि सामने से आ रहे उस जाने-पहचाने चेहरे पर नज़र पड़ी। ये वही बच्ची थी, जो अक्सर मेरे ऑटो में जबरन गुलाब या फिर गुब्‍बारे रख जाती थी, जिन सड़कों को सूरज की तपिश ने गर्म तवे में तब्दील कर दिया था, उसी सड़क पर 7 से 8 साल की ये बच्ची ऐसे चल रही थी, जैसे मदारी का कोई करतब कर रही हो। सड़क पर कभी पंजे रखती, तो कभी एड़ी टिकाती, तो कभी उछल कर एक कदम में ही पूरा रास्ता तय करना चाहती।
मेरी उसकी बिना परिचय की पहचान ही थी कि वो कई ऑटो को छोड़ते हुए मेरे ऑटो के पास आकर ठहरी और बगैर कुछ बोले इशारे से कुछ मांगा। मैं गुस्से में थी इसलिए उसे भी डांट दिया, वो कुछ बोल नहीं रही थी, बस इशारा कर रही थी, और धीरे से बोली ‘’पानी..पानी दे दो’’किसी ने पहली बार ऐसी भीख मांगी थी थोड़ी देर के लिए लगा मैंने ठीक से नहीं सुना पर वो दोबारा फट चुके होठों पर जमी खून के पपड़ी वाले होठों से बोली पानी,
उसके होठों को देखकर जाने कब मेरा हाथ अपने होठों पर चला गया और प्यास से फट चुके होठों की हालात कुछ उस बच्ची के होठों जैसी ही महसूस हुई, इतने में बच्ची ने मेरे दुप्पटे को खींचा और बोली ‘’पानी’’ मेरी नज़र पानी पर गई और देखा बोतल में थोड़ा ही पानी बचा था और पानी भी झूठा था, बच्ची को झूठा पानी देने का मन नहीं हुआ, लेकिन बच्ची का चेहरा देखकर बोतल दे दी।
इधर, बच्ची ने बगैर एक मिनट गंवाए, बोतल में जितना भी पानी था, पी लिया और मेरी तरफ देखकर कर मुस्कुराई और आगे बढ़ गई। बच्ची का चेहरा काफी देर तक आंखों के सामने घूमता रहा। सोच रही थी कि आज मेरा रोज़ा है, तो मुझे प्यास के एहसास ने तड़पा दिया, लेकिन इस मासूम बच्ची की तरह ही दुनिया भर में लाखों बच्चे भूख और प्यास के मारे मजबूरी के ऐसे रोज़े रखने को मजबूर हैं, जिनकी गिनती ना खुदा की राह में है, और ना ही भगवान के दर पर ऐसा नहीं है कि मैं बहुत रईस हूं।
मुफलिसी, गुरबत, फाकाकशी से मैं भी दो चार हो चुकी हूं, लेकिन मेरी जिन्दगी में मई- जून के महीने में पड़ने वाले इस रमज़ान ने दीन के साथ एक सबक भी सिखा दिया कि खुदा की राह में हर साल बगैर कुछ सोचे मुसलमान होने के नाते यूहीं रोज़े रखती आ रही थी।
इन रोजों के पीछे सबाब कम और गुनाहों की माफी का मकसद ज्यादा होता था, पर जून की गर्मी में प्यास से बिलबिलाती उस बच्ची को देखकर रोज़े रखने की उन वजहों ने भी दिमाग में दस्तक दी, जो इंसान को सब्र अमीर और गरीब से हटकर एक सफ (लाइन) में खड़े होकर सिर्फ और सिर्फ इंसानियत के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। रमज़ान में रोज़ों के पीछे बहुत सी वजहें हैं, लेकिन मेरे दिल को जिस वजह ने इस साल छू लिया वो उस बच्ची की प्यास थी।



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