उनकी आख़िरी उम्मीद जैसी हैं प्रियंका


प्रियंका गांधी नौ साल की थी जब 1981 में राजीव गांधी अपना पहला चुनाव लड़ने अमेठी पहुंचे थे.
कैम्पेन जारी था और उनकी जीप तिलोई तहसील बस अड्डे पर रुकी.
समर्थकों की भीड़ ने राजीव और सोनिया गांधी को घेर रखा था और उनसे हाथ मिला रहे थे.
पढ़ें- डूबती कांग्रेस को बचा सकेंगी प्रियंका?
इसी बीच प्रियंका गांधी की नज़र बस अड्डे के पास की मज़ार पर पड़ी जहां मेला भी लगा था.
Image copyrightANIMESH SRIVASTAV
एक ठेले की तरफ़ इशारा करते हुए प्रियंका ने एक कांग्रेसी कार्यकर्ता से पूछा, "वहां उस जगह, इतना रंगीन सा, क्या बिक रहा है".
बताए जाने पर कि ठेला दरअसल चूड़ियों से लदा हुआ है, प्रियंका उस ठेले की तरफ़ ये कहते हुए बढ़ गईं, "मुझे भी चूड़ियाँ पहननी हैं".
इस वाकये के 18 साल बाद सोनिया गांधी अपना पहला लोक सभा चुनाव लड़ने अमेठी पहुंच चुकीं थीं और उनके इस फ़ैसले में बेटी प्रियंका की सलाह शामिल थी.
बात 1999 की है और मुंशीगंज गेस्ट हाउस में कांग्रेसी नेता सतीश शर्मा और किशोरी लाल शर्मा भी एक अहम बैठक में मौजूद थे.
रास्ते में कांग्रेस कार्यकर्ता सुंदरलाल जायसवाल और पत्नी विजया का घर पड़ा तो प्रियंका चाय-बिस्कुट के लिए रुक गईं.
Image copyrightDR MANISH
जायसवाल दंपति ने उनके हाथ में चांदी का एक सिक्का थमाया तो प्रियंका ने कहा, "मैं इस तोहफ़े को नहीं ले सकतीं".
जवाब मिला, "आपने हमें तो अपनी शादी में नहीं बुलाया, लेकिन आप शादी करने के बाद पहली बार हमारे घर आईं हैं तो ये शगुन तो आपको ग्रहण करना ही होगा".
जबकि न कभी प्रियंका ने यहां चुनाव लड़ा है और न ही कभी ऐसी मंशा ज़ाहिर की है. एक वजह तो प्रियंका गांधी का अपनी मां और भाई के चुनाव प्रबंधन से जुड़ाव दिखती है.
राय बरेली में सांसद सोनिया के पीआरओ विनय द्विवेदी को लगता है कि शुरुआत में भीड़ उन्हें बहुत कौतुहल के साथ देखने आती थी, पर अब वे जान गये हैं कि वे लोगों से मिलने और उनके हालचाल जानने के लिए ही आती हैं.
Image copyrightMOHD SHAKEEL
हालांकि प्रियंका के भाई राहुल गांधी की जीवनी लिखने वाले पत्रकार जतिन गांधी को राय बरेली और अमेठी में कुछ समय बिताने के बाद लगा, "प्रियंका या दूसरे किसी भी गांधी को इन क्षेत्रों में इतनी गंभीरता से लेना कोई नई बात नहीं है. 
सवाल ये है कि चाहे सोनिया हों या प्रियंका या राहुल, इन जगहों में इतने जमावड़े के बाद भी कोई बड़ा बदलाव तो दिखा नहीं है." तिलोई में ही किराने की दुकान चलाने वाले 48 वर्षीय लाल बहादुर खान से मुलाक़ात हुई जिनके अनुसार इन दोनों संसदीय क्षेत्रों का हाल दिन प्रतिदिन दिन बुरा होता जा रहा है. शायद इसलिए लोग अब प्रियंका की ओर उम्मीद से देख रहे हैं.
उन्होंने कहा, "राजीव गांधी के बाद से अमेठी का कुछ भी भला नहीं हुआ है. पिछले चुनाव को राहुल की स्मृति ईरानी के ऊपर जीत बताया गया, वो दरअसल इज़्ज़त बच जाने वाली जीत थी. यहां लोग इतने क्रोधित हो चुके थे इसलिए जनता ने पिछले चुनाव में ये दिखा दिया कि जिस राह पर गांधी परिवार चल रहा है उसे बदलने की ज़रूरत है. वीआईपी चुनावी क्षेत्र तो बस कहने की चीज़ रह गई है. अगर गांधी परिवार ने अब भी हालात बेहतर नहीं किए तो अगली बार प्रियंका का प्रचार बेअसर हो सकता हैं."
अमेठी की तुलना में राय बरेली में प्रियंका गांधी का प्रभाव थोड़ा ज़्यादा दिखा.
Image copyrightSUNDAR LAL JASIWAL
वजह शायद यही है सोनिया गांधी के चुनावों में बूथ मैनेजमेंट से लेकर गांवों का दौरा प्रियंका ही करती रही हैं.
कांग्रेस पार्टी को दशकों से कवर करने वाले पत्रकार रशीद किदवई को लगता है कि मौजूद समय में गांधी परिवार में सबसे ज़्यादा हाजिरजवाब प्रियंका ही मालूम पड़ती हैं.
उन्होंने कहा, "2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक बयान दिया था कि कांग्रेस अब बूढ़ी हो चली है. प्रियंका उस समय शायद अमेठी में प्रचार कर रहीं थी तो उनकी प्रतिक्रिया मांगी. प्रियंका ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि क्या मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं".
जो लोग प्रियंका की हाज़िरजवाबी का लोहा मानते हैं उनमें सांसद संजय सिंह भी हैं, जो प्रियंका और राहुल गांधी के बीच में तुलना को भी ये कहकर गलत बताते हैं, "एक ही हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, इसलिए दोनों की अपनी शख्सियतें अलग हैं".
हालांकि राजीव गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका के साथ चुनाव में करीब से काम कर चुके कुछ पुराने लोगों की ऐसी भी राय है कि प्रियंका के साथ एक ही मुश्किल है और वो है 'कान की कच्ची होना".
Image copyrightANIMESH SRIVASTAV
करीब 70 वर्ष की आयु वाले एक पुराने कांग्रेसी ने कहा, "हम लोग इंदिरा जी के समय से कांग्रेस के प्रति वफादार हैं और उसके बाद सिर्फ प्रियंका में ही इंदिरा की छवि दिखी थी. लेकिन प्रियंका चारों तरफ चाटुकारों से घिरी रहतीं हैं और हमारी वाजिब शिकायतें भी आखिरकार चाटुकारों तक पहुंच जातीं है". अमेठी में पहले राजीव गांधी का चुनाव प्रचार सम्भाल चुके एक बुज़ुर्ग को लगता है कि चाटुकारों से घिरे रहने की दिक्कत राहुल गांधी की ज़्यादा है 
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में प्रियंका ने आसपास के लोगों पर भरोसा करना कम कर दिया है और अमेठी-राय बरेली और गांधी परिवार के लिए भी ये अच्छे संकेत नहीं हैं. बहराल हक़ीक़त यही है कि हर चुनाव के पहले अमेठी-राय बरेली में ये बहस छिड़ जाती है कि क्या इस बार प्रियंका चुनाव लड़ेंगी? इस तरह की चर्चा खुले आम करने वालों को शायद ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा के पास कोई जादुई छड़ी है जिससे भारत नहीं तो कम से कम उत्तर प्रदेश में कॉंग्रेस पार्टी के खोए हुए दिन वापस लौट सकते हैं.
(BBC HINDI )


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/ / उनकी आख़िरी उम्मीद जैसी हैं प्रियंका


प्रियंका गांधी नौ साल की थी जब 1981 में राजीव गांधी अपना पहला चुनाव लड़ने अमेठी पहुंचे थे.
कैम्पेन जारी था और उनकी जीप तिलोई तहसील बस अड्डे पर रुकी.
समर्थकों की भीड़ ने राजीव और सोनिया गांधी को घेर रखा था और उनसे हाथ मिला रहे थे.
पढ़ें- डूबती कांग्रेस को बचा सकेंगी प्रियंका?
इसी बीच प्रियंका गांधी की नज़र बस अड्डे के पास की मज़ार पर पड़ी जहां मेला भी लगा था.
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एक ठेले की तरफ़ इशारा करते हुए प्रियंका ने एक कांग्रेसी कार्यकर्ता से पूछा, "वहां उस जगह, इतना रंगीन सा, क्या बिक रहा है".
बताए जाने पर कि ठेला दरअसल चूड़ियों से लदा हुआ है, प्रियंका उस ठेले की तरफ़ ये कहते हुए बढ़ गईं, "मुझे भी चूड़ियाँ पहननी हैं".
इस वाकये के 18 साल बाद सोनिया गांधी अपना पहला लोक सभा चुनाव लड़ने अमेठी पहुंच चुकीं थीं और उनके इस फ़ैसले में बेटी प्रियंका की सलाह शामिल थी.
बात 1999 की है और मुंशीगंज गेस्ट हाउस में कांग्रेसी नेता सतीश शर्मा और किशोरी लाल शर्मा भी एक अहम बैठक में मौजूद थे.
रास्ते में कांग्रेस कार्यकर्ता सुंदरलाल जायसवाल और पत्नी विजया का घर पड़ा तो प्रियंका चाय-बिस्कुट के लिए रुक गईं.
Image copyrightDR MANISH
जायसवाल दंपति ने उनके हाथ में चांदी का एक सिक्का थमाया तो प्रियंका ने कहा, "मैं इस तोहफ़े को नहीं ले सकतीं".
जवाब मिला, "आपने हमें तो अपनी शादी में नहीं बुलाया, लेकिन आप शादी करने के बाद पहली बार हमारे घर आईं हैं तो ये शगुन तो आपको ग्रहण करना ही होगा".
जबकि न कभी प्रियंका ने यहां चुनाव लड़ा है और न ही कभी ऐसी मंशा ज़ाहिर की है. एक वजह तो प्रियंका गांधी का अपनी मां और भाई के चुनाव प्रबंधन से जुड़ाव दिखती है.
राय बरेली में सांसद सोनिया के पीआरओ विनय द्विवेदी को लगता है कि शुरुआत में भीड़ उन्हें बहुत कौतुहल के साथ देखने आती थी, पर अब वे जान गये हैं कि वे लोगों से मिलने और उनके हालचाल जानने के लिए ही आती हैं.
Image copyrightMOHD SHAKEEL
हालांकि प्रियंका के भाई राहुल गांधी की जीवनी लिखने वाले पत्रकार जतिन गांधी को राय बरेली और अमेठी में कुछ समय बिताने के बाद लगा, "प्रियंका या दूसरे किसी भी गांधी को इन क्षेत्रों में इतनी गंभीरता से लेना कोई नई बात नहीं है. 
सवाल ये है कि चाहे सोनिया हों या प्रियंका या राहुल, इन जगहों में इतने जमावड़े के बाद भी कोई बड़ा बदलाव तो दिखा नहीं है." तिलोई में ही किराने की दुकान चलाने वाले 48 वर्षीय लाल बहादुर खान से मुलाक़ात हुई जिनके अनुसार इन दोनों संसदीय क्षेत्रों का हाल दिन प्रतिदिन दिन बुरा होता जा रहा है. शायद इसलिए लोग अब प्रियंका की ओर उम्मीद से देख रहे हैं.
उन्होंने कहा, "राजीव गांधी के बाद से अमेठी का कुछ भी भला नहीं हुआ है. पिछले चुनाव को राहुल की स्मृति ईरानी के ऊपर जीत बताया गया, वो दरअसल इज़्ज़त बच जाने वाली जीत थी. यहां लोग इतने क्रोधित हो चुके थे इसलिए जनता ने पिछले चुनाव में ये दिखा दिया कि जिस राह पर गांधी परिवार चल रहा है उसे बदलने की ज़रूरत है. वीआईपी चुनावी क्षेत्र तो बस कहने की चीज़ रह गई है. अगर गांधी परिवार ने अब भी हालात बेहतर नहीं किए तो अगली बार प्रियंका का प्रचार बेअसर हो सकता हैं."
अमेठी की तुलना में राय बरेली में प्रियंका गांधी का प्रभाव थोड़ा ज़्यादा दिखा.
Image copyrightSUNDAR LAL JASIWAL
वजह शायद यही है सोनिया गांधी के चुनावों में बूथ मैनेजमेंट से लेकर गांवों का दौरा प्रियंका ही करती रही हैं.
कांग्रेस पार्टी को दशकों से कवर करने वाले पत्रकार रशीद किदवई को लगता है कि मौजूद समय में गांधी परिवार में सबसे ज़्यादा हाजिरजवाब प्रियंका ही मालूम पड़ती हैं.
उन्होंने कहा, "2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक बयान दिया था कि कांग्रेस अब बूढ़ी हो चली है. प्रियंका उस समय शायद अमेठी में प्रचार कर रहीं थी तो उनकी प्रतिक्रिया मांगी. प्रियंका ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि क्या मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं".
जो लोग प्रियंका की हाज़िरजवाबी का लोहा मानते हैं उनमें सांसद संजय सिंह भी हैं, जो प्रियंका और राहुल गांधी के बीच में तुलना को भी ये कहकर गलत बताते हैं, "एक ही हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, इसलिए दोनों की अपनी शख्सियतें अलग हैं".
हालांकि राजीव गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका के साथ चुनाव में करीब से काम कर चुके कुछ पुराने लोगों की ऐसी भी राय है कि प्रियंका के साथ एक ही मुश्किल है और वो है 'कान की कच्ची होना".
Image copyrightANIMESH SRIVASTAV
करीब 70 वर्ष की आयु वाले एक पुराने कांग्रेसी ने कहा, "हम लोग इंदिरा जी के समय से कांग्रेस के प्रति वफादार हैं और उसके बाद सिर्फ प्रियंका में ही इंदिरा की छवि दिखी थी. लेकिन प्रियंका चारों तरफ चाटुकारों से घिरी रहतीं हैं और हमारी वाजिब शिकायतें भी आखिरकार चाटुकारों तक पहुंच जातीं है". अमेठी में पहले राजीव गांधी का चुनाव प्रचार सम्भाल चुके एक बुज़ुर्ग को लगता है कि चाटुकारों से घिरे रहने की दिक्कत राहुल गांधी की ज़्यादा है 
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में प्रियंका ने आसपास के लोगों पर भरोसा करना कम कर दिया है और अमेठी-राय बरेली और गांधी परिवार के लिए भी ये अच्छे संकेत नहीं हैं. बहराल हक़ीक़त यही है कि हर चुनाव के पहले अमेठी-राय बरेली में ये बहस छिड़ जाती है कि क्या इस बार प्रियंका चुनाव लड़ेंगी? इस तरह की चर्चा खुले आम करने वालों को शायद ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा के पास कोई जादुई छड़ी है जिससे भारत नहीं तो कम से कम उत्तर प्रदेश में कॉंग्रेस पार्टी के खोए हुए दिन वापस लौट सकते हैं.
(BBC HINDI )



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