रोम जाने से दो साल पहले से ही मिल्खा सिंह को विश्व स्तर का एथलीट माना जाने लगा था जब उन्होंने कार्डिफ़ राष्ट्रमंडल खेलों में तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर मेल स्पेंस को हरा कर स्वर्ण पदक जीता था. रोम में भारतीय एथलेटिक्स टीम के उप कोच वेंस रील को पूरा विश्वास था कि मिल्खा इस बार पदक ज़रूर लाएंगे, शायद स्वर्ण पदक भी ले आएं.
मिल्खा सिंह ने याद किया, “रोम ओलंपिक जाने से पहले मैंने दुनिया भर में कम से कम 80 दौड़ों में भाग लिया था. उसमें मैंने 77 दौड़ें जीतीं जिससे मेरा एक रिकार्ड बन गया था. सारी दुनिया ये उम्मीद लगा रही थी कि रोम ओलंपिक में कोई अगर 400 मीटर की दौड़ जीतेगा तो वो भारत के मिल्खा सिंह होंगे. ये दौड़ ओलंपिक के इतिहास में जाएगी जहाँ पहले चार एथलीटों ने ओलंपिक रिकार्ड तोड़ा और बाक़ी दो एथलीटों ने ओलंपिक रिकार्ड बराबर किया.
मिल्खा कहते है कि जब भी मैं स्टेडियम में दाख़िल होता था, सारा स्टेडियम बेस्ट विशेज़ से गूँज उठता था. लोग कहते थे कि ये साधू है क्योंकि इससे पहले उन्होंने सरदार देखा नहीं था. वो कहते थे कि इसके सिर पर जो जूड़ा है, साधुओं की तरह है. आमतौर से सेमी फ़ाइनल दौड़ के अगले दिन ही फ़ाइनल दौड़ होती थी लेकिन 1960 को रोम ओलंपिक खेलों में 400 मीटर की फ़ाइनल दौड़ दो दिन बाद हुई.
उन्होंने अपनी आत्मकथा द रेस ऑफ़ माई लाइफ़ में लिखा है कि अचानक मेरे दरवाज़े को किसी ने खटखटाया. बाहर हमारे मैनेजर उमराव सिंह थे. वो मुझे एक लंबी वॉक पर ले गए. हम कई पत्थर वाली गलियों, इमारतों, फव्वारों और तोरण द्वारों के सामने से गुज़रे. वो मुझसे पंजाब की बातें कर रहे थे और सिख गुरुओं की बहादुरी की कहानियाँ सुना रहे थे, ताकि अगले दिन होने वाले मुकाबले से मेरा ध्यान बँट सके.
अगले दिन कार्ल कॉफ़मैन को पहली लेन दी गई. अमरीका के ओटिस डेविस दूसरी लेन में थे. मिल्खा सिंह का दुर्भाग्य था कि उन्हें पाँचवीं लेन मिली. उनकी बगल की लेन में एक जर्मन एथलीट था जो छहों धावकों में सबसे कमज़ोर था.
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