
त्रावणकोर राजा ने 1829 में हुकुम जारी किया था कि यदि कोई दलित स्त्री अपने वक्ष ढंके तो उसके स्तन काट लिए जाएँगे –ये बात कोई शोधकर्ता कहता है तो वह सच ही कह रहा है. सही है कि १८५९ में भी त्रावणकोर के हिन्दू राजा ने हुकुमनामा जारी किया कि नीची जातियों की स्त्रियों को कमर से ऊपर कोई वस्त्र पहनना मना है.
लेकिन इसाई औरतें को इस कानून से छूट थी. इसी वजह से बड़ी संख्या में दलित और निचली जातियों के लोग मुस्लिम और इसाई हो गए. वजह थी, जातीय अत्याचार. 1859 में ही निचली जाति की एक लड़की ने घुटनों के नीचे तक लम्बा घाघरा पहना तो दंगे हो गए. टीपू Sultan ने इसके सत्तर साल पहले दलित औरतों को भी मुस्लिम औरतों की तरह वक्ष ढंकने और हिन्दू पुरुषों को बहुविवाह नहीं करने का हुक्म दिया था.
लेकिन दूसरी तरफ – बेशक इससे भी बड़े अन्याय दलितों पर किये गए लेकिन वे सिर्फ दलितों पर ही नहीं, तमाम औरतों और तमाम कमजोरों पर किये गए. जब आप दलित स्त्री पर अन्याय की बात कहते हैं लेकिन ये नहीं कहते कि 1829 में अंग्रेजो के कब्जे वाले भारत में छः सौ सवर्ण औरतों (अधिकांश ब्राह्मण और राजपूत,) को उनके पतियों की लाश के साथ जिन्दा जला कर मार डाला गया तो आप अर्धसत्य नहीं, सच के शतांश को पेश कर रहे हैं.
आज भी विधवा का जीवन इतना दुखद है कि उन्हें लगता है कि एक बार जला कर मार दिया जाना जीवन भर जलने से बेहतर रास्ता था. ये हत्याएं हमने, बहुसंख्यक हिन्दुओं ने, नहीं रोकीं. एक जिक्र आता है. विधवा दहन पर रोक के खिलाफ हमारे जाहिल पुजारियों का एक झुण्ड 1848 से 1859 तक भारत में ब्रिटिश सेनापति रहे सर चार्ल्स नैपियर से मिला. नैपियर ने कहा ठीक है. अगर आप चाहते हैं तो ऐसा ही होगा
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