बीजेपी का कितना 'कल्याण'?


राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के दौरान यूपी के सीएम रहे कल्याण सिंह को 2017 में यूपी विधान सभा चुनाव में बीजेपी के सारथी के तौर पर देखा और समझा जा रहा है। 1990-1992 के दौरान राम मंदिर आंदोलन काल समय के बीजेपी के महारथी कल्याण सिंह अभी राजस्थान के राज्यपाल हैं और उनसे इस्तीफा देकर यूपी में जुटने को कहा जा रहा है। पिछड़ी जाति लोध से ताल्लुक रखने वाले कल्याण शुरू में मुलायम विरोध की राजनीति करते थे बाद में मुलायम के साथ हो गए और फिर बीजेपी में आ गए, लेकिन एक समय में अपनी और बेटे राजवीर सिंह की राजनिति तक सीमित रहे कल्याण सिंह मुलायम से छिटककर बीजेपी में जब आए तो भी वो पार्टी का कुछ खास फायदा नहीं करा पाए। यहां तक कि कल्याण सिंह की मौजूदगी से न तो मुलायम को फायदा हुआ और न ही बीजेपी को। 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को सपा में पद भी दिलाया, लेकिन 2012 में एसपी से अलग हुए और अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। कल्याण की पार्टी को जब विधान सभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा तो हार कर उन्होंने 2013 में बीजेपी का दामन थाम लिया। पिछले चुनाव में बीजेपी ने कल्याण की जाति यानी लोध जाति से ताल्लुक रखने वाली उमा भारती के चेहरे को आगे कर विधान सभा चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी को न तो कोई खास सफलता मिलनी थी और न ही मिली। बीजेपी महज 47 सीटों पर सिमट गई।

साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था औक बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोंकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। ये सर्व विदित है राम मंदिर आंदोलन के दो बड़े चेहरे कल्याण सिंह और उमा भारती पार्टी की सरकारों में अपने-अपने राज्यों में मुख्य मंत्री जरूर रहे हैं, लेकिन पार्टी छोड़कर आते-जाते रहने की वजह से उनका असर न सिर्फ कार्यकर्ताओं में बल्कि जनता में भी कम होता गया है। ये अलग बात है कि पार्टी ने दोनों के अनुभवों और कद की कदर करते हुए एक को राजस्थान में राज्यपाल बनाया तो दूसरे को केंद्र में मंत्री।


पिछले 14 साल से राज्य की जनता या तो मुलायम को चुन रही है या फिर मायावती को। अब सहारनपुर में वनवास खत्म करने की राजनाथ की अपील के बाद जिस तरह से कल्याण सिंह को यूपी चुनाव की कमान दिए जाने की बात चल रही है, उससे साफ जाहिर होता कि पार्टी को ये उम्मीद है कि पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले कल्याण सिंह न सिर्फ मुलायम के असर को कम कर पाएंगे। पार्टी के पास पहले से ही पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले केशव मौर्य राज्य के अध्यक्ष पर मौजूद हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव में 73 सीटें हासिल करने वाली बीजेपी को इस बात की ठोस रणनीति बनानी होगी कि वो यूपी में सत्ता विरोधी मतों को किस तरह अपने पक्ष में जोड़ेंगी। महंगाई, बेरोजगारी और दूसरे मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार से नाराज जनता का क्या जवाब देगी। लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी लहर में एक भी सीट लाने से वंचित रही बीएसपी मायावती को इस बार राज्य में सत्ता का प्रबल दावेदार माना जा रहा है, लेकिन बीजेपी के पास मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोई साफ रणनीति नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस मुक्त भारत के ल्क्ष्य को लेकर चल रही बीजेपी के लिए यूपी में कांग्रेस से तो कोई खतरा नहीं है, जब तक प्रियंका गांधी को सीएम कैंडिडेट घोषित न कर दिया जाए।


भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की दुहाई देने वाले नरेंद्र मोदी की बीजेपी का मुकाबला राज्य में मूल रूप से दो चेहरों से हैं, एक सीएम अखिलेश यादव, जिनकी सरकार पर भले ही कई और आरोप लगे हों कम से कम भ्रष्टाचार के आरोप तो नहीं हैं, दूसरी मायावती, जिन्हें अखिलेश के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। मायावती को लोग दो वजहों से पसंद करते है पहला उनकी राज में सत्ता का महज एक केंद्र होता है, समाजवादी पार्टी की तरह कई केंद्र नहीं। दूसरा कानून-व्यवस्था को लेकर जीरो टोलरेंस होने की वजह से कानून-व्यवस्था की हालत समाजवादी राज से बेहतर होती है। सवाल इतना भर नहीं है। बीजेपी अभी तक ये तय नहीं कर पाई है कि युवा अखिलेश और दलित वोट बैंक की ताकत रखने वाली मायावती के जवाब में बजुर्ग दिग्गज कल्याण सिंह को चेहरा बना रही है या फिर पार्टी का मकसद उनके नाम को इस्तेमाल कर वोट हासिल करना है।
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राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के दौरान यूपी के सीएम रहे कल्याण सिंह को 2017 में यूपी विधान सभा चुनाव में बीजेपी के सारथी के तौर पर देखा और समझा जा रहा है। 1990-1992 के दौरान राम मंदिर आंदोलन काल समय के बीजेपी के महारथी कल्याण सिंह अभी राजस्थान के राज्यपाल हैं और उनसे इस्तीफा देकर यूपी में जुटने को कहा जा रहा है। पिछड़ी जाति लोध से ताल्लुक रखने वाले कल्याण शुरू में मुलायम विरोध की राजनीति करते थे बाद में मुलायम के साथ हो गए और फिर बीजेपी में आ गए, लेकिन एक समय में अपनी और बेटे राजवीर सिंह की राजनिति तक सीमित रहे कल्याण सिंह मुलायम से छिटककर बीजेपी में जब आए तो भी वो पार्टी का कुछ खास फायदा नहीं करा पाए। यहां तक कि कल्याण सिंह की मौजूदगी से न तो मुलायम को फायदा हुआ और न ही बीजेपी को। 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को सपा में पद भी दिलाया, लेकिन 2012 में एसपी से अलग हुए और अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। कल्याण की पार्टी को जब विधान सभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा तो हार कर उन्होंने 2013 में बीजेपी का दामन थाम लिया। पिछले चुनाव में बीजेपी ने कल्याण की जाति यानी लोध जाति से ताल्लुक रखने वाली उमा भारती के चेहरे को आगे कर विधान सभा चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी को न तो कोई खास सफलता मिलनी थी और न ही मिली। बीजेपी महज 47 सीटों पर सिमट गई।

साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था औक बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोंकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। ये सर्व विदित है राम मंदिर आंदोलन के दो बड़े चेहरे कल्याण सिंह और उमा भारती पार्टी की सरकारों में अपने-अपने राज्यों में मुख्य मंत्री जरूर रहे हैं, लेकिन पार्टी छोड़कर आते-जाते रहने की वजह से उनका असर न सिर्फ कार्यकर्ताओं में बल्कि जनता में भी कम होता गया है। ये अलग बात है कि पार्टी ने दोनों के अनुभवों और कद की कदर करते हुए एक को राजस्थान में राज्यपाल बनाया तो दूसरे को केंद्र में मंत्री।


पिछले 14 साल से राज्य की जनता या तो मुलायम को चुन रही है या फिर मायावती को। अब सहारनपुर में वनवास खत्म करने की राजनाथ की अपील के बाद जिस तरह से कल्याण सिंह को यूपी चुनाव की कमान दिए जाने की बात चल रही है, उससे साफ जाहिर होता कि पार्टी को ये उम्मीद है कि पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले कल्याण सिंह न सिर्फ मुलायम के असर को कम कर पाएंगे। पार्टी के पास पहले से ही पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले केशव मौर्य राज्य के अध्यक्ष पर मौजूद हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव में 73 सीटें हासिल करने वाली बीजेपी को इस बात की ठोस रणनीति बनानी होगी कि वो यूपी में सत्ता विरोधी मतों को किस तरह अपने पक्ष में जोड़ेंगी। महंगाई, बेरोजगारी और दूसरे मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार से नाराज जनता का क्या जवाब देगी। लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी लहर में एक भी सीट लाने से वंचित रही बीएसपी मायावती को इस बार राज्य में सत्ता का प्रबल दावेदार माना जा रहा है, लेकिन बीजेपी के पास मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोई साफ रणनीति नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस मुक्त भारत के ल्क्ष्य को लेकर चल रही बीजेपी के लिए यूपी में कांग्रेस से तो कोई खतरा नहीं है, जब तक प्रियंका गांधी को सीएम कैंडिडेट घोषित न कर दिया जाए।


भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की दुहाई देने वाले नरेंद्र मोदी की बीजेपी का मुकाबला राज्य में मूल रूप से दो चेहरों से हैं, एक सीएम अखिलेश यादव, जिनकी सरकार पर भले ही कई और आरोप लगे हों कम से कम भ्रष्टाचार के आरोप तो नहीं हैं, दूसरी मायावती, जिन्हें अखिलेश के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। मायावती को लोग दो वजहों से पसंद करते है पहला उनकी राज में सत्ता का महज एक केंद्र होता है, समाजवादी पार्टी की तरह कई केंद्र नहीं। दूसरा कानून-व्यवस्था को लेकर जीरो टोलरेंस होने की वजह से कानून-व्यवस्था की हालत समाजवादी राज से बेहतर होती है। सवाल इतना भर नहीं है। बीजेपी अभी तक ये तय नहीं कर पाई है कि युवा अखिलेश और दलित वोट बैंक की ताकत रखने वाली मायावती के जवाब में बजुर्ग दिग्गज कल्याण सिंह को चेहरा बना रही है या फिर पार्टी का मकसद उनके नाम को इस्तेमाल कर वोट हासिल करना है।

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