आका के शहर मदीना में तो कोई मुहाजिर भी भूखा नहीं सोया


मदीना में सुख के दिन थे। यहां के लोग अतिथियों का सत्कार करने वाले, उनसे अच्छा व्यवहार करने वाले तथा दिल के बहुत नेक थे। उन्होंने मुसलमानों को हर तरह से आराम देने की कोशिश की। मक्का में जहां प्राणों पर संकट का साया था, यहां सुखों की शीतल छाया थी। कोई भय नहीं था।
मदीना में आप (सल्ल.) हजरत अबू-अय्यूब अंसारी (रजि.) के यहां अतिथि हुए। बहुत सौभाग्यशाली थे अबू-अय्यूब अंसारी (रजि.)। वे इस बात से अतिप्रसन्न थे कि अल्लाह ने प्यारे नबी (सल्ल.) को अतिथि बनाकर भेजा। वे आपकी सुख-सुविधाओं का बहुत ध्यान रखते। हमेशा इस फिक्र में रहते कि आपको यहां कोई कष्ट न हो। मुहम्मद (सल्ल.) सात महीने तक यहीं रहे। जो जमीन मस्जिद के लिए तैयार की गई थी, उसका निर्माण भी संपन्न हो चुका था।
निकट ही मुहम्मद (सल्ल.) की पत्नियों के लिए आवास का निर्माण करवाया गया। इन्हें हुजरा कहा जाता है। इसके पश्चात आप (सल्ल.) यहां आ गए। बनी-नज्जार कबीले वाले आपको (सल्ल.) अतिथि के रूप में पाकर इतने प्रसन्न थे मानो विश्व का अनमोल रत्न उन्हें मिल गया। उनकी बच्चियां अपने इस सौभाग्य की प्रशंसा में गीत गाया करती थीं।
अब मुहम्मद (सल्ल.) की पत्नियां, बेटियां नवनिर्मित आवास में आ गईं। हजरत अबू-बक्र (रजि.) ने अपने पुत्र अब्दुल्लाह (रजि.) को संदेश भेजा। वे अपनी मां तथा बहनों संग मदीना आ गए। जिन मुसलमानों को मक्का में प्रताड़ित किया जा रहा था, उन्होंने भी मदीना आना बेहतर समझा। इसके अलावा जिन साथियों के बच्चे-परिजन आदि मक्का में रह गए, उन्हें मदीना बुला लिया।
अल्लाह के रसूल (सल्ल.) जहां गए, भाईचारा ही कायम किया। भाईचारा सिर्फ मुसलमानों के बीच नहीं। मदीना में कई गैर-मुस्लिम भी रहते थे। आपने (सल्ल.) उनके साथ समझौते के प्रयास किए। उनकी धार्मिक आजादी, कारोबार में खुशहाली का पक्ष लिया। चाहते थे कि मदीना में हर कोई प्रेम से रहे। कोई किसी का अपमान न करे। अगर बाहर से कोई हमला करे तो सब एक हो जाएं। मिलकर उसका मुकाबला करें।
मक्का से मदीना आए मुसलमानों के लिए यहां नया माहौल था। अंसार का अपनत्व तो था, पर अभी कई चुनौतियां थीं। यह सब जिंदगी की नए सिरे से शुरुआत करने जैसा था। ऐसे में आपने (सल्ल.) अंसार व मुहाजिरों को साथ-साथ रहने, प्रगति करने का एक तरीका समझाया। अंसार व मुहाजिर के संबंध बहुत मधुर होते गए। दोनों में गहरा प्रेम था।
मदीना में लोगों की संख्या बढ़ी तो जरूरतें बढ़ गईं। जरूरतें ज्यादा और माल कम, फिर भी बरकत ही बरकत थी। जहां प्रेम हो वहां बरकत क्यों न होगी! आपने (सल्ल.) अंसार व मुहाजिरों को इकट्ठा किया। अंसार को समझाया, ये मुहाजिर तुम्हारे भाई हैं। आप (सल्ल.) एक अंसारी को बुलाते, एक मुहाजिर को बुलाते, फिर दोनों को समझाते, तुम भाई-भाई हो।
अंसार बहुत दिलदार थे तो मुहाजिर बहुत मेहनती। मदीना उनका मुल्क था। उसके हालात बेहतर करना, उसे और खूबसूरत बनाना दोनों का कर्तव्य था। मुहाजिर जी-जान से जुट गए। कोई कारोबार करने लगा, किसी ने खेती में मन लगाया। कड़ी मेहनत से मदीना मजबूत हो रहा था। लोगों के अभाव दूर हुए। घर-घर में समृद्धि दस्तक देने लगी।
जमीन कम हो या ज्यादा, माल थोड़ा हो या पूरा, इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जहां लोग भेदभाव भूलकर अपने वतन की असल समस्याओं को दूर करने में जुट जाते हैं, वे जरूर कामयाब होते हैं। मेहनत व मुहब्बत से खुशहाली का मूलमंत्र जानने वाले अल्लाह के सिवाय किसी और के मोहताज नहीं होते। वे बंजर धरती से सोना पैदा करने का हुनर जानते हैं।

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मदीना में सुख के दिन थे। यहां के लोग अतिथियों का सत्कार करने वाले, उनसे अच्छा व्यवहार करने वाले तथा दिल के बहुत नेक थे। उन्होंने मुसलमानों को हर तरह से आराम देने की कोशिश की। मक्का में जहां प्राणों पर संकट का साया था, यहां सुखों की शीतल छाया थी। कोई भय नहीं था।
मदीना में आप (सल्ल.) हजरत अबू-अय्यूब अंसारी (रजि.) के यहां अतिथि हुए। बहुत सौभाग्यशाली थे अबू-अय्यूब अंसारी (रजि.)। वे इस बात से अतिप्रसन्न थे कि अल्लाह ने प्यारे नबी (सल्ल.) को अतिथि बनाकर भेजा। वे आपकी सुख-सुविधाओं का बहुत ध्यान रखते। हमेशा इस फिक्र में रहते कि आपको यहां कोई कष्ट न हो। मुहम्मद (सल्ल.) सात महीने तक यहीं रहे। जो जमीन मस्जिद के लिए तैयार की गई थी, उसका निर्माण भी संपन्न हो चुका था।
निकट ही मुहम्मद (सल्ल.) की पत्नियों के लिए आवास का निर्माण करवाया गया। इन्हें हुजरा कहा जाता है। इसके पश्चात आप (सल्ल.) यहां आ गए। बनी-नज्जार कबीले वाले आपको (सल्ल.) अतिथि के रूप में पाकर इतने प्रसन्न थे मानो विश्व का अनमोल रत्न उन्हें मिल गया। उनकी बच्चियां अपने इस सौभाग्य की प्रशंसा में गीत गाया करती थीं।
अब मुहम्मद (सल्ल.) की पत्नियां, बेटियां नवनिर्मित आवास में आ गईं। हजरत अबू-बक्र (रजि.) ने अपने पुत्र अब्दुल्लाह (रजि.) को संदेश भेजा। वे अपनी मां तथा बहनों संग मदीना आ गए। जिन मुसलमानों को मक्का में प्रताड़ित किया जा रहा था, उन्होंने भी मदीना आना बेहतर समझा। इसके अलावा जिन साथियों के बच्चे-परिजन आदि मक्का में रह गए, उन्हें मदीना बुला लिया।
अल्लाह के रसूल (सल्ल.) जहां गए, भाईचारा ही कायम किया। भाईचारा सिर्फ मुसलमानों के बीच नहीं। मदीना में कई गैर-मुस्लिम भी रहते थे। आपने (सल्ल.) उनके साथ समझौते के प्रयास किए। उनकी धार्मिक आजादी, कारोबार में खुशहाली का पक्ष लिया। चाहते थे कि मदीना में हर कोई प्रेम से रहे। कोई किसी का अपमान न करे। अगर बाहर से कोई हमला करे तो सब एक हो जाएं। मिलकर उसका मुकाबला करें।
मक्का से मदीना आए मुसलमानों के लिए यहां नया माहौल था। अंसार का अपनत्व तो था, पर अभी कई चुनौतियां थीं। यह सब जिंदगी की नए सिरे से शुरुआत करने जैसा था। ऐसे में आपने (सल्ल.) अंसार व मुहाजिरों को साथ-साथ रहने, प्रगति करने का एक तरीका समझाया। अंसार व मुहाजिर के संबंध बहुत मधुर होते गए। दोनों में गहरा प्रेम था।
मदीना में लोगों की संख्या बढ़ी तो जरूरतें बढ़ गईं। जरूरतें ज्यादा और माल कम, फिर भी बरकत ही बरकत थी। जहां प्रेम हो वहां बरकत क्यों न होगी! आपने (सल्ल.) अंसार व मुहाजिरों को इकट्ठा किया। अंसार को समझाया, ये मुहाजिर तुम्हारे भाई हैं। आप (सल्ल.) एक अंसारी को बुलाते, एक मुहाजिर को बुलाते, फिर दोनों को समझाते, तुम भाई-भाई हो।
अंसार बहुत दिलदार थे तो मुहाजिर बहुत मेहनती। मदीना उनका मुल्क था। उसके हालात बेहतर करना, उसे और खूबसूरत बनाना दोनों का कर्तव्य था। मुहाजिर जी-जान से जुट गए। कोई कारोबार करने लगा, किसी ने खेती में मन लगाया। कड़ी मेहनत से मदीना मजबूत हो रहा था। लोगों के अभाव दूर हुए। घर-घर में समृद्धि दस्तक देने लगी।
जमीन कम हो या ज्यादा, माल थोड़ा हो या पूरा, इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जहां लोग भेदभाव भूलकर अपने वतन की असल समस्याओं को दूर करने में जुट जाते हैं, वे जरूर कामयाब होते हैं। मेहनत व मुहब्बत से खुशहाली का मूलमंत्र जानने वाले अल्लाह के सिवाय किसी और के मोहताज नहीं होते। वे बंजर धरती से सोना पैदा करने का हुनर जानते हैं।


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