कद्रदानो के लिए खेरों बरकत वाले महीने माहे रमज़ान की आमद हो चुकी है अल्लाह तआला से दुआ है की वह हमें इस मुबारक महीने की जैसी क़द्र करनी चाहिए वैसा करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए और मेरी टूटी फूटी इबादतों को अपने फज़ल ओ करम से कबूल फरमाए। (अमीन) इस महीने में तरावीह और तिलावते क़ुरान ए पाक का लोग ख़ास ख्याल रखते हैं और रखना भी चाहिए क्यूंकि यही वह मुबारक महीना है जिसमे क़ुरान नाज़िल होना शुरू हुआ,
इसी महीने के आखिरी 10 दिनों में एक मुबारक रात भी आती है जिसे शबेकद्र कहते हैं इस रात की इबादत 1000 महीनों से बेहतर है (सूरह क़द्र - 97) यानि के करीब 83 साल से ज़्यादा की इबादत का सवाब हासिल करने का मौक़ा।
तरावीह में अपने यहाँ अक्सर पूरा क़ुरान पढ़ कर सुनाया जाता है, और एक और ग़लतफ़हमी अपने यहाँ लोगों में पाई जाती है वह यह की क़ुरान सुनकर ख़त्म तो तरावीह भी खत्म।
जबकि तरावीह पूरे महीने की है इसका क़ुरान के सुनने से कोई लेना देना ही नहीं है फिर भी यह एक आम चलन हो गया है। क़ुरान जल्दी से सुनकर ख़त्म करने के चक्कर में हाफ़िज़ जी और कारी साहिबान को भी इतनी जल्दी होती है की शबीना करके एक ही रात में पूरा क़ुरान पढ़ डालते हैं! किसी को थोड़ा तरस आ गया तो 3 / 5 / 10 दिन में सुना कर खत्म कर दिया।
पूरे महीने में जहाँ क़ुरान ख़त्म होता है वहां की तरावीह में बहुत कम लोग नज़र आते हैं।
अब ज़रा यह देखा जाए की इस जल्दबाज़ी में क़ुरान पढ़ने और सुनाने के बारे में खुद क़ुरान क्या कहता है और हदीस नबवी (स अ) के क्या अहकाम हैं। थोड़ी सी सिर्फ झलक दिए देता हूँ।
हमने तुम पर यह क़ुरआन इसलिए नहीं उतारा कि तुम मशक़्क़त में पड़ जाओ (20/2) सूरह ताहा पर (दो जहाँ का) सच्चा बादशाह खुदा बेहतर व आला है और (ऐ रसूल) कुरान के (पढ़ने) में उससे पहले कि तुम पर उसकी (वही) पूरी कर दी जाए जल्दी न करो और दुआ करो कि ऐ मेरे पालने वाले मेरे इल्म को और ज्यादा फ़रमा (20/114) सूरह ताहा
(ऐ रसूल) वही के जल्दी याद करने वास्ते अपनी ज़बान को हरकत न दो (16) उसका जमा कर देना और पढ़वा देना तो यक़ीनी हमारे ज़िम्मे है (17) तो जब हम उसको (जिबरील की ज़बानी) पढ़ें तो तुम भी (पूरा) सुनने के बाद इसी तरह पढ़ा करो (18) फिर उस (के मुश्किलात का समझा देना भी हमारे ज़िम्में है) (19) सूरह कियामह नंबर 75
और क़ुरान को बाक़ायदा ठहर ठहर कर पढ़ा करो (73/4) सूरह मुज़म्मिल इसके अलावा और भी कई जगह पर अल्लाह तआला ने क़ुरान को समझ कर पढ़ने का और समझने का हुक्म दिया है जैसे सूरह 'क़मर' में तीन दफा आया है की ' हमने क़ुरान को समझने के लिए आसान कर दिया, तो कोई है की सोचे समझे'।
समझाने का मतलब यह है की क़ुरान को जल्दबाज़ी में सिर्फ पूरा पढ़ने के लिए न पढ़ा जाये बल्कि इसको समझा जाये की यह क्या कह रहा है और यह तभी हो सकता है जब इसको ठहर ठहर कर और समझ कर पढ़ा जाये न की जल्दबाज़ी में जैसा की आम तौर पर हमारे यहाँ तरावीह में होता है।
आयत में अज़ाब का ज़िक्र हो या खुशखबरी का क़ारी साहब एक ही और सुर में लय में रट्टा लगाते जाते हैं, जब उनको ही एहसास नहीं होता की क्या पढ़ रहे हैं तो पीछे सुनने वालों का हाल तो बस सवाब हासिल करने तक ही है (अल्लाह तआला से दुआ है की वह हम सभी को दीन की सही समझ अता फरमाए और सीधे रस्ते की तरफ हमारी रहनुमाई करे। आमीन)
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