फिर खिला देती है मुरझाए मन को मित्रता

मित्रता मैदान में नदी की धारा की तरह शांत, लेकिन स्थायी होती है और जीवन के अंतिम पहर तक साथ देती है। प्रेम एकतरफा हो सकता है, लेकिन मित्रता में दोनों सक्रिय रहते हैं और दोनों ही दायित्व महसूस करते हैं।
मैत्री, प्रेम का सबसे मानवीय स्तर है। स्वतंत्रता, बराबरी और बंधुत्व का ऐसा मेल अन्य किसी रिश्ते में संभव नहीं है। आजकल सोशल मीडिया पर दोस्ती की बहार है किंतु क्या इसे सच्चे अर्थों में दोस्ती कहा जा सकता है? सिर्फ पसंद/नापसंद या कभी कोई टिप्पणी कर देने मात्र से दोस्ती जिंदा तो रह सकती है पर परवान नहीं चढ़ सकती।
उसके लिए तो साथ-साथ, साझा अनुभव जरूरी है। हमारे जीवन में मित्रता की दो भूमिकाएं ऐसी हैं, जो उसे एक आदर्श का दर्जा देती है। हम सभी, जीवन के किसी मोड़ पर ठोकरें खाकर गहरी हताशा में डूब जाते हैं। ऐसे में मुरझाए मन को फिर से खिलने लायक बनाने में मित्र बहुत काम आते हैं। उनका निःस्वार्थ प्रेम ही हमें फिर खड़े होकर जीवन का सामना करने की शक्ति देता है।
तभी तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मित्र को औषधि समान माना है। अपने आप को समझने, अपना सर्वोत्तम विकसित करने में मित्र बिना किसी एहसान के मदद करते हैं, जो हमें अपने जीवन का अर्थ पाने में दूर तक साथ देते हैं।
यह सही है कि सभी दोस्त ऐसे नहीं होते किंतु ऐसा एक भी दोस्त मिलना या स्वयं होना, जीवन को ईश्वरीय वरदान है। इतना तो तय है कि हर कोई, हर किसी का मित्र नहीं हो सकता पर इसमें जाति-पाति, ऊंच-नीच, धर्म-नस्ल का भाव ज्यादा मायने नहीं रखता। फिर चाहे हम कृष्ण-सुदामा, राम-सुग्रीव या दुर्योधन-कर्ण के पौराणिक उदाहरण लें या चन्द्रगुप्त-चाणक्य, तुलसीदास-रहीमदास के ऐतिहासिक उदाहरण। पहली बात तो यह है कि मित्रता रक्त संबंध नहीं है, हम अपने मित्रों का चयन करते हैं।
भले ही इसके पीछे अचेतन रूप से वैज्ञानिकों के अनुसार, हम और हमारे मित्रों के बीच डीएनए की एक प्रतिशत समानता ही क्यों न हो। विवाह की तरह मित्रता का कोई बना-बनाया ढांचा नहीं होता। मित्र से महीनों बात किए बिना भी मित्रता पर आंच नहीं आती पर यह बात विवाह संबंध के बारे में नहीं कही जा सकती। मित्र के रूप में हम उन लोगों को ही चुनते हैं, जिनकी गतिविधियों, रुचियों, सोच और सरोकारों में हमसे समानता हो। तभी तो मित्र की परिभाषा अरस्तू ने ‘हम जैसा एक और’ के रूप में की है।
दोस्ती के फलने-फूलने के लिए ‘भरोसा’ सबसे जरूरी होता है। हम अपने दोस्त के सामने अपने को इस भरोसे के साथ खोलना चाहते हैं कि वह हमें वैसे ही स्वीकार करेगा जैसे कि हम हैं और बुरी लगने पर भी सच बात कहने से नहीं चूकेगा, जिससे हम जीवन में भटकावों से बच सकेंगे। विद्वानों ने मित्रता के मुख्यतः तीन रूप बताए हैं- सुख मैत्री, उपयोगिता मैत्री और गुण मैत्री।
हममें से अधिकांशतः पहले दो प्रकार की मित्रता को ही प्रश्रय देते हैं, लेकिन तीसरी, गुण मैत्री ही नैतिक रूप से उत्कृष्ट मानी जाती है। हम अलग-अलग व्यक्तियों के साथ मित्रता के अलग-अलग रूप से जुड़े हो सकते हैं और एक ही व्यक्ति के साथ तीनों रूपों में एक साथ भी जुड़ सकते हैं।
जहां पुरुषों के बीच मित्रता में साथ-साथ कार्य-संपादन की भूमिका ज्यादा होती है वहीं, स्त्रियों के बीच मित्रता में भावात्मक, व्यक्तिगत घनिष्ठता का महत्व ज्यादा होता है। मित्रता के जिस आदर्श रूप की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं, उसका दायरा आज सिकुड़ता नज़र आ रहा है।
भावनात्मकता के स्थान पर अपना सुख और व्यापारिकता हावी होती जा रही है। हम एक-दूसरे का उपयोग करने के लिए दोस्ती करने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि दोस्त एक-दूसरे के काम नहीं आते किंतु यह मित्रता का प्रधान उद्‌देश्य नहीं है।
उसका उद्‌देश्य तो हार्दिक, प्रेमपूर्ण आत्मीयता को गहराना है, विस्तार देना है। रोमांटिक प्रेम में पहाड़ी झरने की तरह आवेग, तीव्रता अधिक होती है किंतु यह अस्थायी साबित होता है। मित्रता मैदान में नदी की धारा की तरह शांत, लेकिन स्थायी होती है
और जीवन के अंतिम पहर तक साथ देती है। एक श्रेष्ठ जीवन के लिए यह नितांत वांछनीय है। आइए, इसे अपने-अपने जीवन में इसका उचित स्थान दें। भौतिकता की अंधी दौड़ में इसे कहीं खो न जाने दें।
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मित्रता मैदान में नदी की धारा की तरह शांत, लेकिन स्थायी होती है और जीवन के अंतिम पहर तक साथ देती है। प्रेम एकतरफा हो सकता है, लेकिन मित्रता में दोनों सक्रिय रहते हैं और दोनों ही दायित्व महसूस करते हैं।
मैत्री, प्रेम का सबसे मानवीय स्तर है। स्वतंत्रता, बराबरी और बंधुत्व का ऐसा मेल अन्य किसी रिश्ते में संभव नहीं है। आजकल सोशल मीडिया पर दोस्ती की बहार है किंतु क्या इसे सच्चे अर्थों में दोस्ती कहा जा सकता है? सिर्फ पसंद/नापसंद या कभी कोई टिप्पणी कर देने मात्र से दोस्ती जिंदा तो रह सकती है पर परवान नहीं चढ़ सकती।
उसके लिए तो साथ-साथ, साझा अनुभव जरूरी है। हमारे जीवन में मित्रता की दो भूमिकाएं ऐसी हैं, जो उसे एक आदर्श का दर्जा देती है। हम सभी, जीवन के किसी मोड़ पर ठोकरें खाकर गहरी हताशा में डूब जाते हैं। ऐसे में मुरझाए मन को फिर से खिलने लायक बनाने में मित्र बहुत काम आते हैं। उनका निःस्वार्थ प्रेम ही हमें फिर खड़े होकर जीवन का सामना करने की शक्ति देता है।
तभी तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मित्र को औषधि समान माना है। अपने आप को समझने, अपना सर्वोत्तम विकसित करने में मित्र बिना किसी एहसान के मदद करते हैं, जो हमें अपने जीवन का अर्थ पाने में दूर तक साथ देते हैं।
यह सही है कि सभी दोस्त ऐसे नहीं होते किंतु ऐसा एक भी दोस्त मिलना या स्वयं होना, जीवन को ईश्वरीय वरदान है। इतना तो तय है कि हर कोई, हर किसी का मित्र नहीं हो सकता पर इसमें जाति-पाति, ऊंच-नीच, धर्म-नस्ल का भाव ज्यादा मायने नहीं रखता। फिर चाहे हम कृष्ण-सुदामा, राम-सुग्रीव या दुर्योधन-कर्ण के पौराणिक उदाहरण लें या चन्द्रगुप्त-चाणक्य, तुलसीदास-रहीमदास के ऐतिहासिक उदाहरण। पहली बात तो यह है कि मित्रता रक्त संबंध नहीं है, हम अपने मित्रों का चयन करते हैं।
भले ही इसके पीछे अचेतन रूप से वैज्ञानिकों के अनुसार, हम और हमारे मित्रों के बीच डीएनए की एक प्रतिशत समानता ही क्यों न हो। विवाह की तरह मित्रता का कोई बना-बनाया ढांचा नहीं होता। मित्र से महीनों बात किए बिना भी मित्रता पर आंच नहीं आती पर यह बात विवाह संबंध के बारे में नहीं कही जा सकती। मित्र के रूप में हम उन लोगों को ही चुनते हैं, जिनकी गतिविधियों, रुचियों, सोच और सरोकारों में हमसे समानता हो। तभी तो मित्र की परिभाषा अरस्तू ने ‘हम जैसा एक और’ के रूप में की है।
दोस्ती के फलने-फूलने के लिए ‘भरोसा’ सबसे जरूरी होता है। हम अपने दोस्त के सामने अपने को इस भरोसे के साथ खोलना चाहते हैं कि वह हमें वैसे ही स्वीकार करेगा जैसे कि हम हैं और बुरी लगने पर भी सच बात कहने से नहीं चूकेगा, जिससे हम जीवन में भटकावों से बच सकेंगे। विद्वानों ने मित्रता के मुख्यतः तीन रूप बताए हैं- सुख मैत्री, उपयोगिता मैत्री और गुण मैत्री।
हममें से अधिकांशतः पहले दो प्रकार की मित्रता को ही प्रश्रय देते हैं, लेकिन तीसरी, गुण मैत्री ही नैतिक रूप से उत्कृष्ट मानी जाती है। हम अलग-अलग व्यक्तियों के साथ मित्रता के अलग-अलग रूप से जुड़े हो सकते हैं और एक ही व्यक्ति के साथ तीनों रूपों में एक साथ भी जुड़ सकते हैं।
जहां पुरुषों के बीच मित्रता में साथ-साथ कार्य-संपादन की भूमिका ज्यादा होती है वहीं, स्त्रियों के बीच मित्रता में भावात्मक, व्यक्तिगत घनिष्ठता का महत्व ज्यादा होता है। मित्रता के जिस आदर्श रूप की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं, उसका दायरा आज सिकुड़ता नज़र आ रहा है।
भावनात्मकता के स्थान पर अपना सुख और व्यापारिकता हावी होती जा रही है। हम एक-दूसरे का उपयोग करने के लिए दोस्ती करने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि दोस्त एक-दूसरे के काम नहीं आते किंतु यह मित्रता का प्रधान उद्‌देश्य नहीं है।
उसका उद्‌देश्य तो हार्दिक, प्रेमपूर्ण आत्मीयता को गहराना है, विस्तार देना है। रोमांटिक प्रेम में पहाड़ी झरने की तरह आवेग, तीव्रता अधिक होती है किंतु यह अस्थायी साबित होता है। मित्रता मैदान में नदी की धारा की तरह शांत, लेकिन स्थायी होती है
और जीवन के अंतिम पहर तक साथ देती है। एक श्रेष्ठ जीवन के लिए यह नितांत वांछनीय है। आइए, इसे अपने-अपने जीवन में इसका उचित स्थान दें। भौतिकता की अंधी दौड़ में इसे कहीं खो न जाने दें।

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