जानिए क्यों अहम है? कश्मीर की यह खबर


इस माह की 10 तारीख को जम्मू-कश्मीर के सारे प्रमुख अखबारों ने 23 वर्षीय अथेर आमिर शफी खान की शानदार सफलता को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

अनंतनाग के अाईआईटी मंडी के पासआउट शफी खान ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर दूसरा स्थान हासिल किया है। पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर से भारतीय सिविल सेवा और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में जाने के इच्छुक छात्रों की संख्या बढ़ती रही है। साथ ही हर साल चुने जाने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ रही है।

इसने इस उपद्रवग्रस्त राज्य में नई बहस छेड़ दी है। जहां एक ओर इसे देश की शीर्ष नौकरशाही में अधिक प्रतिनिधित्व पर जोर दिए जाने और कश्मीरी छात्रों की प्रतिस्पर्धा की बढ़ती भावना के बतौर देखा जा रहा है

तो दूसरी ओर एक छोटे तबके का कहना है कि यह उस ‘दमनकारी’ भारतीय राज्य के साथ सहयोग है, जो कश्मीरी राष्ट्रवाद के मूल विचार के ही खिलाफ है। यह ऐसे समय में हो रहा है जब कश्मीरी युवा अपनी योग्यता व दृढ़ निश्चय के बल पर सीधे दुनिया को जीतने के लिए तैयार है।

एेसे में बहस का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। एक ऐसे वातावरण में जहां विभाजन की दरारें बहुत गहरी हैं, कश्मीर में सफलता की हर कहानी क्यों खबर बननी चाहिए और उसका अलग से जश्न क्यों मनाया जाना चाहिए, इसे समझने की जरूरत है। हमें यह अहसास होना चाहिए कि हम एक ऐसी पीढ़ी की बात कर रहे हैं,

जो दशकों की हिंसा से उपजी निराशा और हताशा की संस्कृति के बीच पली-बढ़ी है। इससे भी बढ़कर इसका कारण शायद यह कि वे उपद्रवग्रस्त, अधूरे व विविधता रहित समाज में पले-बढ़े हैं। उनके डीएनए में तो विविधता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के जाने के बाद विविधता कहीं नज़र नहीं आती।

कश्मीर उस प्रकार का बंद समाज कभी नहीं था, जैसा वह 1990 के बाद बन गया। सरकारी और गैर-सरकारी किरदारों द्वारा की गई हिंसा, अंतर्धार्मिक आदान-प्रदान और सह-अस्तित्व के अनुभव से वंचित और विफल शिक्षा व्यवस्था द्वारा ठगे गए

संघर्ष के इन बच्चों’ में आकांक्षाओं और सपनों का अभाव तो स्वाभाविक ही था। किंतु विरोधाभास यह है कि संघर्ष की अपनी भावना के अनुरूप सारी तकलीफों के बावजूद कश्मीरी छात्र मुख्यत: मेडिसीन और इंजीनियरिंग में बहुत आगे रहे हैं। फिर निर्णायक मोड़ आया। 1990 और 2008 के बीच बहुत कम कश्मीरी छात्र सिविल सेवा, आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस आदि में जाते थे। अचानक ढेरों कश्मीरी इनके लिए टूट पड़े। पिछले पांच वर्ष में ही भारतीय सिविल सेवाअों में पिछले पांच दशकों की तुलना में पांच गुना कश्मीरी प्रवेश पा गए।

इसमें रैंक1, रैंक2 और टॉपर भी शामिल हैं तथा महिला अधिकारियों की भी अच्छी भागीदारी है। सफलता की ये कहानियां इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिन युवाओं ने यह फैसला लिया है उन्हें इस परीक्षा से भी गुजरना पड़ा कि क्या कश्मीरी राष्ट्रवाद के सख्त चौखट में बैठता है और क्या नहीं। फिर, थोपे गए रोल मॉडल की भी समस्या है। यहां अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार रोल मॉडल पेश किए जाते हैं। कई बार किसी नेता को गद्दार कहकर खारिज कर दिया जाता है या किसी पत्रकार को सरकार समर्थित स्टेनो कह दिया जाता है।

कड़ी मेहनत कर सिविल सेवा में आए युवा के खिलाफ फतवा जारी हो जाता है। यहां सर्वश्रेष्ठ चीजें भी सरकार समर्थक या विरोध के मिथ्या प्रचार की शिकार हो जाती हैं। फिर दलील का दूसरा हिस्सा यह है कि आतंकवाद भी कॅरिअर है या नहीं, क्या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्लेसमेंट की तुलना शहीद के रूप में कब्र में प्लेसमेंट से की जा सकती है?

क्या शिक्षित युवा कश्मीरी के शव ही विरोध के स्वीकार्य स्मारक हैं? जब तक स्वतंत्रता की मरीचिका साकार नहीं होती तब तक क्या हमें जीना छोड़ देना चाहिए? जब तक आजादी की रूमानी सुबह नहीं आती तब तक कौन शो जारी रखेगा-

ये कुछ वजूद से जुड़े सवाल है, जो मैं कश्मीर-काज़ के कॅरिअरिस्ट चौकीदारों के लिए छोड़ रहा हूं ताकि यह लेख प्रकाशित होने के बाद वे काव्यमय प्रत्युत्तर लिख सकें। आखिर में, अन्य शहरों में पढ़ रहे या काम कर रहे कश्मीरी छात्रों को यंत्रणा देेने या उनके साथ अलग व्यवहार करने से मामला जटिल हो जाता है।

इसकी तुलना पाकिस्तान के कॉलेजों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों के साथ सद्‌भावना दिखाए जाने की सच्ची-झूठी कहानियों से कीजिए। प्रवेश की औपचारिकताओं में ही फर्क देखिए, जब कश्मीरी छात्र अटारी पहुंचता है और जब वह आजादपुर पहुंचता है। इन बातों से काफी फर्क पड़ता है। धारणाओं का बहुत महत्व है।

फिर औसत कश्मीरी युवा शेष देश में अवसरों की तलाश के दौरान आतंकियों जैसा दिखने के कारण जेल में पहुंचने की बजाय बेकार बैठना पसंद करेगा। एेसी पृष्ठभूमि में जब आप कश्मीरी युवाओं को व्यवस्था के साथ संबंध बनाकर आगे बढ़ते देखते हैं तो आपको गौर करना होगा, क्योंकि ये साधारण कहानियां नहीं हैं।

कश्मीर में राजनीतिक दुस्साहस और चुनावी धांधलियों का इतिहास होने के कारण, भारतीय संस्थानों पर संदेह होना स्वाभाविक है। नकारात्मक रुख रखने वाले कई लोगों ने यूपीएससी में कश्मीरी युवाओं के चयन को सद्‌भावना अभियान का हिस्सा बताया।

यह अहसास होने में वक्त लगा कि इस सदाशयता के पीछे कुटिल व्यवस्था का हाथ नहीं, कश्मीरियों की कड़ी मेहनत है। कश्मीर के अंदर कश्मीरी छात्रों के आईआईटी,आईआईएम, बॉलीवुड, क्रिकेट, सिविल सर्विसेस, सैन्य सेवाओं, पुलिस आदि में प्रवेश का विरोध करने वाले यह समझ लें कि अर्थशास्त्र की बजाय भावनाओं के सहारे बुनी गई कहानी लंबे समय तक नहीं चलती।

अपने ही लोगों को देशद्रोही या उनकी मदद करने वालों के रूप में प्रचारित कर हम समाज में और ज्यादा विभाजन पैदा कर रहे हैं। हो सकता है हम कश्मीरियों को उन मौकों से भी मरहूम कर रहे हों, जो अंतत: यह तय करेंगे कि सामूहिक रूप से हम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सफल होंगे या नहीं।

व्यक्तिगत दंभ या दिखावे को तवज्जो देना ठीक नहीं, क्योंकि त्याग के ऐसे उपदेश तो सामान्य लोगों के बच्चों के लिए होते हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध फिदायीन तत्वों के संबंधियों और सहयोगियों के लिए नहीं। प्रतिरोध का मतलब है सम्मान के साथ अपना वजूद बचाए रखना।

अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने, अपनी धरोहरों को बचाए रखने, सरकारी दफ्तरों से भ्रष्टाचार मिटाने, सच बोलने, आम लोगों और शासक वर्ग के बीच की कड़ी बनने और सड़कों पर अनुशासन और शांति बनाए रखने से है। सिविल सर्विसेस परीक्षा क्वालिफाई करना प्रतिरोध की कार्रवाई है। सबको इसकी सराहना करनी चाहिए।

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इस माह की 10 तारीख को जम्मू-कश्मीर के सारे प्रमुख अखबारों ने 23 वर्षीय अथेर आमिर शफी खान की शानदार सफलता को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

अनंतनाग के अाईआईटी मंडी के पासआउट शफी खान ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर दूसरा स्थान हासिल किया है। पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर से भारतीय सिविल सेवा और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में जाने के इच्छुक छात्रों की संख्या बढ़ती रही है। साथ ही हर साल चुने जाने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ रही है।

इसने इस उपद्रवग्रस्त राज्य में नई बहस छेड़ दी है। जहां एक ओर इसे देश की शीर्ष नौकरशाही में अधिक प्रतिनिधित्व पर जोर दिए जाने और कश्मीरी छात्रों की प्रतिस्पर्धा की बढ़ती भावना के बतौर देखा जा रहा है

तो दूसरी ओर एक छोटे तबके का कहना है कि यह उस ‘दमनकारी’ भारतीय राज्य के साथ सहयोग है, जो कश्मीरी राष्ट्रवाद के मूल विचार के ही खिलाफ है। यह ऐसे समय में हो रहा है जब कश्मीरी युवा अपनी योग्यता व दृढ़ निश्चय के बल पर सीधे दुनिया को जीतने के लिए तैयार है।

एेसे में बहस का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। एक ऐसे वातावरण में जहां विभाजन की दरारें बहुत गहरी हैं, कश्मीर में सफलता की हर कहानी क्यों खबर बननी चाहिए और उसका अलग से जश्न क्यों मनाया जाना चाहिए, इसे समझने की जरूरत है। हमें यह अहसास होना चाहिए कि हम एक ऐसी पीढ़ी की बात कर रहे हैं,

जो दशकों की हिंसा से उपजी निराशा और हताशा की संस्कृति के बीच पली-बढ़ी है। इससे भी बढ़कर इसका कारण शायद यह कि वे उपद्रवग्रस्त, अधूरे व विविधता रहित समाज में पले-बढ़े हैं। उनके डीएनए में तो विविधता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के जाने के बाद विविधता कहीं नज़र नहीं आती।

कश्मीर उस प्रकार का बंद समाज कभी नहीं था, जैसा वह 1990 के बाद बन गया। सरकारी और गैर-सरकारी किरदारों द्वारा की गई हिंसा, अंतर्धार्मिक आदान-प्रदान और सह-अस्तित्व के अनुभव से वंचित और विफल शिक्षा व्यवस्था द्वारा ठगे गए

संघर्ष के इन बच्चों’ में आकांक्षाओं और सपनों का अभाव तो स्वाभाविक ही था। किंतु विरोधाभास यह है कि संघर्ष की अपनी भावना के अनुरूप सारी तकलीफों के बावजूद कश्मीरी छात्र मुख्यत: मेडिसीन और इंजीनियरिंग में बहुत आगे रहे हैं। फिर निर्णायक मोड़ आया। 1990 और 2008 के बीच बहुत कम कश्मीरी छात्र सिविल सेवा, आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस आदि में जाते थे। अचानक ढेरों कश्मीरी इनके लिए टूट पड़े। पिछले पांच वर्ष में ही भारतीय सिविल सेवाअों में पिछले पांच दशकों की तुलना में पांच गुना कश्मीरी प्रवेश पा गए।

इसमें रैंक1, रैंक2 और टॉपर भी शामिल हैं तथा महिला अधिकारियों की भी अच्छी भागीदारी है। सफलता की ये कहानियां इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिन युवाओं ने यह फैसला लिया है उन्हें इस परीक्षा से भी गुजरना पड़ा कि क्या कश्मीरी राष्ट्रवाद के सख्त चौखट में बैठता है और क्या नहीं। फिर, थोपे गए रोल मॉडल की भी समस्या है। यहां अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार रोल मॉडल पेश किए जाते हैं। कई बार किसी नेता को गद्दार कहकर खारिज कर दिया जाता है या किसी पत्रकार को सरकार समर्थित स्टेनो कह दिया जाता है।

कड़ी मेहनत कर सिविल सेवा में आए युवा के खिलाफ फतवा जारी हो जाता है। यहां सर्वश्रेष्ठ चीजें भी सरकार समर्थक या विरोध के मिथ्या प्रचार की शिकार हो जाती हैं। फिर दलील का दूसरा हिस्सा यह है कि आतंकवाद भी कॅरिअर है या नहीं, क्या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्लेसमेंट की तुलना शहीद के रूप में कब्र में प्लेसमेंट से की जा सकती है?

क्या शिक्षित युवा कश्मीरी के शव ही विरोध के स्वीकार्य स्मारक हैं? जब तक स्वतंत्रता की मरीचिका साकार नहीं होती तब तक क्या हमें जीना छोड़ देना चाहिए? जब तक आजादी की रूमानी सुबह नहीं आती तब तक कौन शो जारी रखेगा-

ये कुछ वजूद से जुड़े सवाल है, जो मैं कश्मीर-काज़ के कॅरिअरिस्ट चौकीदारों के लिए छोड़ रहा हूं ताकि यह लेख प्रकाशित होने के बाद वे काव्यमय प्रत्युत्तर लिख सकें। आखिर में, अन्य शहरों में पढ़ रहे या काम कर रहे कश्मीरी छात्रों को यंत्रणा देेने या उनके साथ अलग व्यवहार करने से मामला जटिल हो जाता है।

इसकी तुलना पाकिस्तान के कॉलेजों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों के साथ सद्‌भावना दिखाए जाने की सच्ची-झूठी कहानियों से कीजिए। प्रवेश की औपचारिकताओं में ही फर्क देखिए, जब कश्मीरी छात्र अटारी पहुंचता है और जब वह आजादपुर पहुंचता है। इन बातों से काफी फर्क पड़ता है। धारणाओं का बहुत महत्व है।

फिर औसत कश्मीरी युवा शेष देश में अवसरों की तलाश के दौरान आतंकियों जैसा दिखने के कारण जेल में पहुंचने की बजाय बेकार बैठना पसंद करेगा। एेसी पृष्ठभूमि में जब आप कश्मीरी युवाओं को व्यवस्था के साथ संबंध बनाकर आगे बढ़ते देखते हैं तो आपको गौर करना होगा, क्योंकि ये साधारण कहानियां नहीं हैं।

कश्मीर में राजनीतिक दुस्साहस और चुनावी धांधलियों का इतिहास होने के कारण, भारतीय संस्थानों पर संदेह होना स्वाभाविक है। नकारात्मक रुख रखने वाले कई लोगों ने यूपीएससी में कश्मीरी युवाओं के चयन को सद्‌भावना अभियान का हिस्सा बताया।

यह अहसास होने में वक्त लगा कि इस सदाशयता के पीछे कुटिल व्यवस्था का हाथ नहीं, कश्मीरियों की कड़ी मेहनत है। कश्मीर के अंदर कश्मीरी छात्रों के आईआईटी,आईआईएम, बॉलीवुड, क्रिकेट, सिविल सर्विसेस, सैन्य सेवाओं, पुलिस आदि में प्रवेश का विरोध करने वाले यह समझ लें कि अर्थशास्त्र की बजाय भावनाओं के सहारे बुनी गई कहानी लंबे समय तक नहीं चलती।

अपने ही लोगों को देशद्रोही या उनकी मदद करने वालों के रूप में प्रचारित कर हम समाज में और ज्यादा विभाजन पैदा कर रहे हैं। हो सकता है हम कश्मीरियों को उन मौकों से भी मरहूम कर रहे हों, जो अंतत: यह तय करेंगे कि सामूहिक रूप से हम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सफल होंगे या नहीं।

व्यक्तिगत दंभ या दिखावे को तवज्जो देना ठीक नहीं, क्योंकि त्याग के ऐसे उपदेश तो सामान्य लोगों के बच्चों के लिए होते हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध फिदायीन तत्वों के संबंधियों और सहयोगियों के लिए नहीं। प्रतिरोध का मतलब है सम्मान के साथ अपना वजूद बचाए रखना।

अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने, अपनी धरोहरों को बचाए रखने, सरकारी दफ्तरों से भ्रष्टाचार मिटाने, सच बोलने, आम लोगों और शासक वर्ग के बीच की कड़ी बनने और सड़कों पर अनुशासन और शांति बनाए रखने से है। सिविल सर्विसेस परीक्षा क्वालिफाई करना प्रतिरोध की कार्रवाई है। सबको इसकी सराहना करनी चाहिए।


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