
1857 में जब हिंदुस्तानियो ने अंग्रेजो के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया और अवध में इसे जोर शोर से आगे बढ़ाया जा रहा था उस वक़्त बगावत की लपटे इलाहाबाद और उसके आस पास के इलाकों में भी पहुच चुकी थी । हालाँकि इलाहबाद में बगावत की आवाज वहा के पंडों ने उठाई थी पर इलाहबाद के अवाम ने इस जंग में कयादत के लिए मौलवी लियाकत अली को चुना। ये जंग बहुत लम्बी तो नही चली और बागियों को हार का मुह भी देखना पड़ा था पर उन्होंने जिस बहादुरी और शेर दिली के साथ जंग लड़ी उसे इतिहास कभी भूल नही पायेगा।
बिरजिस कद्र के मोहर वाली ऐलान को शहर में जारी कर मौलाना ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से बाहर निकालने की अपील की। वे बेगम हजरत महल और अन्य बड़े-बड़े क्रांतिकारियों के लगातार सम्पर्क में रहे। बहुत बार तो उन्होंने अपने भरोसेमंद तेज हरकारों की मदद से कई बार बगावत की खबर दिल्ली पहुचाई।
मेरठ कि क्रांति की खबर 12 मई 1857 को ही इलाहबाद पहुच गयी । उस वक़्त इलाहबाद किले में यूरोपीय फ़ौज या अधिकारी नही थे। सिर्फ 200 सिख सैनिक ही किले की हिफाजत में खड़े थे। इलाहबाद की तमाम खबरें वहा के सोये अवाम को जगाती रही और वहा की असली क्रांति 6 जून 1857 को हुयी तब तक वहा कई ब्रिटिश अधिकारी पहुच गए थे। पर उस दिन आज़ादी का जूनून बागियों के सर चढ़ के बोल रहा था
उन्होंने अंग्रेज फ़ौज और अधिकारियों पर हमला कर कईयों को मौत के घाट उतार दिया लेकिन 107 अंग्रेज सिपाहियों को अपनी जान किले में छिपकर बचानी पड़ी।
अंग्रेजो ने उनके गिरफ़्तारी पर 5000 का इनाम रख दिया मौलाना दक्षिण होते हुए बम्बई पहुंचे और वहा अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान की जेल में भेज दिया गया और वही उनका इन्तेकाल हो गया । उनका मजार भी कालापानी में ही बनी है ।मौलाना लियाकत इलाहबाद से 21 किलोमीटर दूर महगांव के रहने वाले है । उनके परिजन आज भी इसी गाँव में रहते है ।
1957 में जवाहर लाल नेहरु भी एक कार्यक्रम में महगांव गए थे। आज मौलाना लियाकत अली का घर ढहने के कगार पर है पर राज्य सरकार भी इसके मरम्मत के लिए कोई कदम नही उठाती । उनके इतनी बड़ी क़ुरबानी के बदले सिर्फ महगांव से चरवा जाने वाले रस्ते का नाम मौलवी लियाकत अली मार्ग कर दिया गया।।।।।
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