
साल 2006 में चार साल के एक लड़के बुधिया सिंह ने 65 किलोमीटर की दौड़ पूरा कर रातों-रात शोहरत कमा ली थी. ओडिशा की झुग्गी-झोपड़ियों से आए बुधिया सिंह ने अपने गुरु बिरंची दास की मदद से इस दौड़ को पूरा कर लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में जगह बनाई.
लेकिन 2008 में बुधिया के बाल-अधिकारों को लेकर छिड़े विवाद और उनके कोच बिरंची दास की मृत्यु के बाद भारत का यह 'सनसनीख़ेज़' धावक कहीं पीछे छूट गया. अब 14 साल के हो चुके बुधिया सिंह की ज़िंदगी पर एक फ़िल्म 'बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन' आ रही है. इसके ज़रिए बुधिया की कहानी दर्शकों के सामने होगी.
इस फ़िल्म के सिलसिले में बुधिया से बातचीत की और उन्होंने अपने बारे में कुछ क़िस्से साझा किए. उन्होंने बताया, "मुझे 11 साल की उम्र में पता चला की मेरा इतना नाम था. जब बचपन में लोग पूछते थे कि मैं और कितना भागूंगा, तो मैं कहता था की जितना भाग सकता हूँ भागूंगा, पर आज मैं यह नहीं बोल सकता क्योंकि मुझे प्रशिक्षण ठीक से नहीं मिला है."

सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए बुधिया ने कहा, "सरकार शायद मुझे भूल गई है. मुझे हॉस्टल में अच्छे प्रशिक्षण देने का वादा करके ले गए थे. पर न तो मुझे प्रशिक्षण अच्छा मिल रहा है और न ही खाना. उनका आरोप है कि ओडिशा के जिस खेल प्रशिक्षण शिविर में उन्हें ट्रेनिंग मिल रही है, वहां 12 खिलाडियों के लिए एक कोच है. इस वजह से कोच बुधिया को व्यक्तिगत ट्रेनिंग नहीं दे पाते हैं.
बुधिया अपने नाम और शोहरत का श्रेय बिरंची दास को देते हुए कहते हैं, "अगर वो न होते तो शायद आज मैं कही पर बाल मजदूरी कर रहा होता. उन्होंने मुझे ओलिंपिक का सपना दिखाया है. मुझे उनके जैसे कोच की ज़रूरत है.वो कहते हैं की इसके बाद शायद देश के किसी कोने से उन्हें बिरंची दास जैसा कोच मिले, जो ओलिंपिक में भारत के लिए दौड़ने के उनके सपने को पूरा कर दे.
0 comments:
Post a Comment