
अगर मुहम्मद (स.) साहब की शिक्षाओं पर मनन किया जाए तो – दो बातें उनमें सबसे अहम हैं। पहली, मुहम्मद साहब की शिक्षाएं किसी एक देश या धर्म के लिए नहीं हैं। वे सबके लिए हैं। … और दूसरी, उनकी शिक्षाएं आज से डेढ़ हजार साल पहले जितनी प्रासंगिक थीं, वे आज भी प्रासंगिक हैं।
अर्थशास्त्र भले ही ब्याज (सूद) को मूलधन का किराया, शुल्क या कुछ और माने, लेकिन इस्लाम धर्म में ब्याज को अनुचित माना गया है। इस्लाम के मुताबिक ब्याज एक ऐसी व्यवस्था है जो अमीर को और अमीर बनाती है तथा गरीब को और ज्यादा गरीब।
इस प्रकार यह शोषण का एक जरिया है, जिसे लागू करने से इंसानों को बचना चाहिए। इस्लाम ब्याज को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करता। पवित्र कुरआन स्पष्ट रूप से ब्याज को वर्जित मानती है। उसमें इंसानों के लिए कहा गया है – ईमान वालो, दो गुना और चार गुना करके ब्याज मत खाया करो। तुम अल्लाह से डरो। ब्याज खाने से बरकत खत्म हो जाती है।
मुहम्मद(स.) साहब के दिव्य संदेश से पहले अरब निवासियों में ब्याज की प्रथा बड़े स्तर पर प्रचलित थी। इससे अमीरों का तो फायदा था लेकिन गरीब इसकी बेरहम मार से बच नहीं सकते थे। मुहम्मद(स.) साहब ने स्वयं गरीबी में जीवन बिताया था और उन्होंने इस प्रथा से कई लोगों को कष्ट उठाते देखा था।
कुरआन में संदेश दिया गया है कि जो लोग इस हिदायत के बाद ब्याज लेना बंद कर देंगे उनका मामला अल्लाह को सुपुर्द है, लेकिन तमाम जानकारी के बाद भी जो नहीं संभला, जिसने ब्याज लेना जारी रखा, उसके लिए आगे नरकीय जीवन है और कोई मुक्ति नहीं है। जो व्यक्ति ब्याज लेता रहा है, क्योंकि उसे जानकारी नहीं थी, लेकिन अब वह यह बात समझ चुका है तो उसके लिए कुरआन का संदेश है – “अल्लाह से डरो और जो कुछ भी ब्याज में से शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम सच्चे दिल से ईमान रखते हो।
तब धैर्य बनाए रखो, बुरे तरीके मत अपनाओ। अल्लाह से डरते हुए, उसकी नाफरमानी से बचते हुए सही, जायज, हलाल तरीके अपनाओ। हराम रोजी के करीब भी मत जाओ।
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